“जान-ए-जानां” तुम पूछती हो न कि
मैंने तुम्हें कितना चाहा है तो सुनो
मैंने तुम्हें चाहा है इतना
जितना
“ज़िंदगी” ने “सांसों” को
“आज” ने आने वाले “कल” को
किसी “जुआरी” ने “ताश” को
“धरती” ने किसी “झरने” को
“मल्हार” ने एक “कागज़ की कश्ती” को
जितना
“सूखे पेड़” ने “फ़ुहार” को
एक “बच्चे” ने अपने “खिलौने” को
थके हुए “मुसाफ़िर” ने “सोने” को
किसी “तन्हा” ने एक “दिलवाले” को
वीरान पड़े “घर” ने किसी “घर वाले” को
किसी “भूखे” ने एक “निवाले” को
“रूह” ने “ज़िस्म” को
“किसान” ने अपनी “फ़सल” को
जितना
किसी “जादूगर” ने अपने “जादू” को
रोते हुए “बच्चे” ने अपनी “माँ” को
किसी “भटके हुए” ने सच्ची “राह” को
घनघोर “अंधेरी” रात ने “चांद” को
किसी “प्यासे” ने एक बूंद “पानी” को
किसी “बिछड़े” हुए ने अपने “प्रियजन” को
“गम” ने “तन्हाई” को
“प्यार” ने “आत्मीयता” को
सुनो न !!
अब मैं तुम्हें और क्या बताऊँ
की मैंने तुम्हें कितना..चाहा है
मैंने तुम्हें अपनी जवानी
अपनी ज़िन्दगानी से ज्यादा चाहा है
हां मेरी जान-ए-जानां मैंने तुम्हें
ख़ुद से ज्यादा चाहा है..