Sunday, January 24, 2021

तुमसे हमको है

बस इतनी सी .. मोहब्बत


तेरे होने से हैं

मेरे आठों पहर . खूबसूरत...!!

Saturday, January 23, 2021

सुनो जानाँ !

आ जाओ अब

तुम हमारे क़रीब

लिखनी है

तुम्हारी पेशानी पे

एक प्रेम कविता


लिखनी है

एक प्रेम कहानी

तुम्हारे अधरों पे

तुम्हारी आँखों से

चुराकर

काली स्याही


की आ जाओ

अब तुम

हमारे क़रीब

की बनानी है

एक प्रेम धुन

तुम्हारी

कलाइयों की

हरी हरी

चूड़ियों की

खनक़ से

चुराकर..!!

ठंडे पड़ चुके

खून में

अब वो

जोश कहाँ

इन चिलमियों

को अब

होश कहाँ


न जाने

कितने ही

बने फ़िरते हैं

नेता आजकल

पर इनमें से

कोई बोस कहाँ..!!

Thursday, January 21, 2021

तुम

मेरी कविता हो


तुम्हारी आँखें
जैसे
कुछ कहती हैं
और मैं
लिखने
बैठ जाता हूँ

तुम्हारे होंठ
चुप रहते हैं
लेकिन
उसकी कोमल
पंखुड़ियां
मेरी कविता
की रंगत हैं

कभी झाँकना
अपने मन में
कितनी
गहराई है
उसमें
कितनी
मासूमियत है

जानती हो !
मेरी कविताएं
इतनी
मासूम इसलिए हैं
क्योंकि वो
आती हैं
छूकर
तुम्हारे मन को

तुम्हारा
धानी रंग का
आँचल लगता है
जैसे खेतों पे
लिखी गई
कोई
कविता हो

हां ! ये सच
भी तो है
तुम कविता
ही तो हो मेरी
जो मेरे मन के
कागज पे
उतर गयी है

और तुम्हारे गेशु
जिनमें इतना स्याह रंग
भर गया है

तुम्हारा शरमाना
और मेरी
मेरी कविता
की मुरकियाँ
तुम्हारा चलना
और
मेरी कविता के लिए
शब्दों का मिलना

तुम्हारे भीगे
गेशुओं से
लिपटी हुई
उफ्फ्फ !
ये पानी की
बूंदें

इन पानी की
बूंदों से
मेरी कविताओं में
बारिश
होने लगती है
जब तुम इन
गीले बालों में
मेरे ह्रदय में
उतर आती हो..!!

Wednesday, January 20, 2021

आज पूर्णिमा है

चाँद अपने
पूर्ण रूप में
चमक रहा है

मैं चाहता हूँ
तुम आज
कोइ श्रृंगार मत करो
आज चाँद को
देखने दो
धरती के चाँद को

तुम ना बांधो
करधनी
ना फ़ूलों से
करो श्रृंगार
तुम आज
ये सब रहने दो
आज आसमां के
उस चाँद को
देखने दो
धरती के इस
चाँद को

सुनो
रहने दो तुम
बिंदिया
और काज़ल
न ही
खिलाओ तुम
होंठों पे अपने
कोई गुलमोहर
जलने दो
आज रात
उस चाँद को

मैं चाहता हूँ
आज तुम
कोइ श्रृंगार
मत करो
जलने दो
उस चाँद को
आज तुम
घूँघट भी मत डालो
रहने दो तुम
पाँव की पायल आज

मैं भी आज
धरती के इस चाँद की
चांदनी से
भींगना चाहता हूँ

सुनो जानाँ
आज तुम सारे
श्रृंगार रहने दो

आज रात
हम दोनों
ओढ़ेंगे
प्रीत की ओढ़नी
तुम
लाल जोड़ा भी
रहने दो
रहने दो
तुम आज
सारे सोलह
श्रृंगार भी
रहने दो
रहने दो
तुम
फ़ूलों का हार

आज थोड़ा
धरती के
चाँद की
प्रीत को महकने दो
न लगाओ
तुम कोई इत्र भी
न सजाओ
तुम आज
गुलाब की
पंखुड़ियों को भी


सुनो मेरी जानाँ
मैं चाहता हूँ
आज तुम
कोई श्रृंगार मत करो

वो पूर्णिमा की

चाँद है
उसके चेहरे पे
एक काला सा तिल
रात को बिंदी की
तरह समेट कर
ठीक उसके
होंठों के ऊपर
जा बैठता है

मैं जब
निहारता हूँ
उस चाँद को
मुझे दिखती है
रात
शरमाती हुई

मेरी बाहों में
आने को
वो तिल
बहुत बेताब है

सोचता हूँ
आगोश में भरकर
अपने लबों से छू लूँ
उस अनछुई रात को

जो समेटे बैठा है
एक तिल
मेरे चाँद के
होंठों के ठीक ऊपर

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