वो पूर्णिमा की
चाँद हैउसके चेहरे पे
एक काला सा तिल
रात को बिंदी की
तरह समेट कर
ठीक उसके
होंठों के ऊपर
जा बैठता है
मैं जब
निहारता हूँ
उस चाँद को
मुझे दिखती है
रात
शरमाती हुई
मेरी बाहों में
आने को
वो तिल
बहुत बेताब है
सोचता हूँ
आगोश में भरकर
अपने लबों से छू लूँ
उस अनछुई रात को
जो समेटे बैठा है
एक तिल
मेरे चाँद के
होंठों के ठीक ऊपर
bada pyara hai ji ........ bahot shundar
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