Wednesday, January 20, 2021

वो पूर्णिमा की

चाँद है
उसके चेहरे पे
एक काला सा तिल
रात को बिंदी की
तरह समेट कर
ठीक उसके
होंठों के ऊपर
जा बैठता है

मैं जब
निहारता हूँ
उस चाँद को
मुझे दिखती है
रात
शरमाती हुई

मेरी बाहों में
आने को
वो तिल
बहुत बेताब है

सोचता हूँ
आगोश में भरकर
अपने लबों से छू लूँ
उस अनछुई रात को

जो समेटे बैठा है
एक तिल
मेरे चाँद के
होंठों के ठीक ऊपर

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