मैं,, नदी के किनारे से निकलते हुए देखता हूँ तो कई बिचार मन को घेर लेते है , ये नदी क्यों नहीं ,सारी गंदगी को बहाते हुए ले जाती है और किसी अँधेरे कुएँ में ढ़केल आती है , इस बिश को ........|
मन में फिर एक दूसरा विचार आता है,, शायद विवश होगी |
जैसे की हम है , सारी गंदगी को देखते हुए भी मुँह में पट्टी बांधे हुए बैठे है | अन्धो की तरह राह दिखाने वाला ढूंढ रहे है |
हम खुद को कभी साहसी बनते नहीं देख सकते | हमारा अपराध हामरे लिए क्षम्य है |
खैर ,,
कभी आपने किसी फूल को खिलते हुए देखा है ..... खिलते हुए वक़्त के साथ ,, एक मुरझाता हुआ सा वक़्त भी उसमे दीखता है |
अपने जीवन की भी यही गति है ,, आज ख़िला है तो कल मुरझाना ही है |
समुन्द्र की गहराई में छिपा धैर्य हम कभी नहीं देख पाते है | सिर्फ समंदर के बदलते रंग को और उसमे उठने वाले तुफानो को हमने देखा है .......ये तूफ़ान आँखों का धोका भी हो सकता है ,, हम शायद समझ नहीं पाते है |
अक्सर शांति में सन्नाटा और और सन्नाटे में शोर अनुभव किया गया है | कई बार शांत सी नदी भी शोर करती है , और कोलाहल करती हुए बारिश की बुँदे मन को आनंदित कर जाती है |
पेड़ो को खुरचने से जो उसमे से कुछ तरल पदार्थ जैसा आता है ,, शायद वो भी जीवन का प्रमाड है , खिले -खिले हरे -भरे पेड़ जो रोज हमें सैकड़ो टन ऑक्सीजन देते है ,, उन्हें मार दिया जाता है | जीवित व्यवस्था को बिगाड़ के लोग खुस है, अंधेर नगरी में लोगो का जी लगता भी नहीं , शिकायते फिर भी रहती है |
अंकित तिवारी
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