मैं लिखना चाहता था उसके होठो पे एक कविता
लेकिन नहीं ढूंढ पाया मैं......उसके होठो की लालिमा
वो उगते हुए सूर्य में थी ,, मैं कहाँ से लाता
मैं जल जाता ,, मेरी कविता अधूरी ही अच्छी है
वो मुस्कुरा के ,, मेरी तरफ देखती और कह देती ,, झूठे
झूठे वादे तुम्हारे ,, दिखावो कहाँ है ,, वो कविता जो मुझपे लिखी थी
मैं उसके मुस्कुराते होठो को देखता और कहता ....... कमल की
पंखुड़ियों को क्या पन्ने पे सजाऊँ ......इन्हे जल में ही रहने दो
वो शर्माती ,, और मेरे सीने से लग जाती ........ बस इतने में ही
चाँद मेरे आँगन में उतर आता ........उसके मुस्कराहट आज भी
मेरी शर्ट की सिलवटों में है .......
प्रिया मिश्रा :))
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