मन सांसारिक भावनाओं को त्याग देना चाहता है अब , हृदय विहीन ही जीना सीखना चाहता है । लेकिन डर भी है , हम कोई सन्यासी नही है । ना हमारे जैसे सन्यास लेने वाले ही सन्यासी होंगे ।उनका भी मन डरता होगा ।
सन्यास लेना उत्तम उपाय भी तो नही है , क्युकी कर्म वहां भी प्रधान है । कर्म सांसारिक करो या भागवतिक करना तो है ही।
कुछ न कुछ तो करना ही है , फिर भी मन उजाड़ उदास सा क्यों हो जाता है ।
जैसे एकदम से किसी हरे -भरे मैदान में आग लगा दी हो और सब कुछ जल गया हो ।आग भी न बची हो और राख भी न बची हो ।
विरक्ति भाव में स्थिति कैसे रहे
इस निर्मोही संसार में मति कैसे रहे ।।
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